मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
अहमद फ़राज़ की दो ग़ज़लें  (काव्य)  Click to print this content  
Author:अहमद फ़राज़

नज़र की धूप में साये घुले हैं शब की तरह
मैं कब उदास नहीं था मगर न अब की तरह

फिर आज *शह्रे-तमन्ना की रहगुज़ारों से
गुज़र रहे हैं कई लोग रोज़ो-शब की तरह

तुझे तो मैंने बड़ी आरज़ू से चाहा था
ये क्या कि छोड़ चला तू भी और सब की तरह

फ़सुर्दगी* है मगर वज्हे-ग़म* नहीं मालूम
कि दिल पे बोझ-सा है रंजे-बेसबब* की तरह

खिले तो अबके भी गुलशन में फूल हैं लेकिन
न मेरे ज़ख़्म की सूरत न तेरे लब की तरह

- अहमद फ़राज़

[ शह्रे-तमन्ना=इच्छाओं का नगर, फ़सुर्दगी=उदासी, वज्हे-ग़म=दु:ख का कारण, रंजे-बेसबब=अकारण दु:ख]

 

2)


तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम हैं दोस्तो

किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे
आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो

कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तो

इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अ़ब दिल की रौनकें भी कोई दम हैं दोस्तो

सब कुछ सही "फ़राज़" पर इतना ज़रूर हैं
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो

- अहमद फ़राज़

 

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